नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् देवीं सरस्वती
01 सत्य के पालन से धर्म की रक्षा होती है सदा अभ्यास करने से विद्या की रक्षा होती है मार्जन के द्वारा पात्र की रक्षा होती हैं और फिर से कुल की रक्षा होती है
विप्रा नाम भूषण विद्या पृथिव्यां
03 जो मनुष्य पराई स्त्रियों में मातृभाव रखता है जो दूसरे के द्रवों को मिट्टी पत्थर दिल के समान आदरणीय समझता है और सभी प्राणियों में अपने ही स्वरुप का दर्शन आत्म दर्शन करता है वही विद्वान है
04 जो राजा शास्त्र सम्मत और युक्ति सिद्धांतों का उल्लंघन करता है वह निश्चित ही इस लोक एवं परलोक दोनों में नष्ट हो जाता है
04विद्या से सुशोभित होने पर भी दुर्जन व्यक्ति का परित्याग कर देना चाहिए जैसे मणि से अलंकृत सर्प क्या भयंकर नहीं होता अवश्य होता है
05 पूर्व जन्म में अर्जित की गई विद्या दिया गया धन तथा संपादित कर्म ही दूसरे जन्म में आगे-आगे मिलते जाते हैं अर्थात प्राणी ने पूर्व जन्म में जैसा कर्म किया है उसको इस जन्म में वैसा ही प्राप्त होता है
06 इस संसार में कर्म ही प्रधान है कर्म प्रधान विश्व रचि राखा इस संसार में कर्म ही प्रधान है सुंदर नक्षत्र तथा ग्रहों का योग था स्वयं वशिष्ठ मुनि के द्वारा निर्धारित लग्न में विवाह संस्कार कराए जाने पर भी जानकी सीता को पूर्व जन्म में संचित कर्म के अनुसार दुख भोगना पड़ा
07 ना पिता के कर्म से पुत्र को सद्गति मिल सकती है और ना पुत्र के कर्म से पिता सद्गति को प्राप्त हो सकता है सभी लोग अपने अपने कर्म ही अच्छी गति प्राप्त करते हैं
09 इसलिए संसार में धर्म आरती ही महान होता है धन की अपेक्षा करने वाले मनुष्य को निश्चित ही श्रेष्ठ जनों के दृष्टांतों को स्मरण करके धनोपार्जन करना चाहिए
10 सत्य पालन में शुचिता मना शुद्धि इंद्रियनिग्रह सभी प्राणियों में दया और जल से प्रक्षालन यह पांच प्रकार की शौच माने जाते हैं
11 जिसमें सत्य पालन की सोचता है उसके लिए स्वर्ग की प्राप्ति दुर्लभ नहीं जो मनुष्य ही संभाषण करता है वह अश्वमेघ यज्ञ करने वाले व्यक्ति से बढ़कर हैं
12 उसके हाथ-पैर एवं मनुष्य मत है जिसे अध्यात्म विद्या प्राप्त है जो धर्म पालन के लिए कष्ट सहन करता है तथा जिन इसे सत्य कीर्ति अर्जित की है वही तीर्थों का यथार्थ फल भोगता है अन्यथा नहीं
13 जो मनुष्य सम्मान से प्रसन्न नहीं होता आप मानसिक रोग नहीं होता एवं क्रोध आने पर मुंह से कठोर वाक्य नहीं निकालता ऐसे ही पुरुष को साधु पुरुष समझना चाहिए ज्ञानी पुरुष मानना चाहिए पंडित जी कहना चाहिए इंटेलीजेंट भी से मारना चाहिए
14 सभी प्राणियों या पदार्थों की उत्पत्ति की पूर्व में स्थिति नहीं थी और निधन के अंत में भी उनकी स्थिति नहीं रहेगी सभी पदार्थ माध्यम मध्यम में ही विद्वान रहते हैं इसमें दुख करने की क्या बात है दुकानें की कोई बात नहीं है
15 प्रानी की मृत्यु वहां होती है जहां उसका हंता विद्यमान होता है लक्ष्मी वही निवास करती है जहां संपत्तियां होती हैं ऐसे ही अपने कर्म से प्रेरित होकर प्राणी स्वयं ही उन स्थानों पर पहुंच जाता है
16 पूर्व जन्म में किया गया कर्म करता के पीछे पीछे वैसे ही चल रहता है वैसे ही चलता है जैसे गोष्ट में हजारों गायों के रहने पर भी बछड़ा अपनी माता को पहचान लेता है
17 राग द्वेष आदि गुणों से युक्त प्राणियों को कहीं पर भी क्रोध नहीं मिलता मैं भली प्रकार से विचार करके यह देखता हूं कि जहां संतोष है वहां सुख है
19 प्राणियों में इसने उत्पन्न करने के जो मूल है वही दुख के कारण हैं अतः उन का परित्याग कर देने पर
20 अर्थात उनके प्रति अपनी आसक्ति को समाप्त कर देने से प्राणी को महान सुख की प्राप्ति होती है
21 शरीर के साथ ही वह सुख दुख भी उत्पन्न होते हैं यह शरीर ही दुख और सुख का घर है अर्थात पराधीनता ही दुख और स्वाधीनता ही सुख है
22 प्राणी को सुख भोग के पश्चात दुख और दुख के पश्चात सुख का भोग प्राप्त होता है इस तरह मनुष्य के सुख-दुख चक्र के समान परिवर्तित होते रहते हैं
23 माता भगिनी अथवा पुत्री के साथ एकांत में एक साथ नहीं बैठना चाहिए क्योंकि इंद्रियों का समूह बलवान होता है या विद्वानों को भी दुराचरण की ओर खींच लेता है
25 अधिक मात्रा में जल का पान करना गरिष्ठ भोजन धातु की चिंता मल मूत्र का वेग रोकना दिन में सोना एवं रात्रि में जागरण करना इन 6 कारणों से मनुष्य के शरीर में रोग निवास करने लगते हैं
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