Saturday, September 1, 2018

Yogeshvar Vachan

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जैसे भंवरे बासी पुष्प को त्यागकर 9 विकसित कुसुम पर चले जाते हैं और  marg जले हुए वन का परित्याग कर अन्यत्र आश्रय लेते हैं इसी प्रकार यह स्पष्ट है कि स्वार्थवश ही सभी प्राणी एक दूसरे से प्रेम करते हैं वास्तव में कौन प्रिय है स्वार्थ लाल करे सब प्रीती सुर नर मुनि सबकी यह रीति


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अपनी विहित कर्म तथा धर्म चरण का पालन करते हुए जीविका उपार्जन में तत्व पर सदैव शास्त्र चिंतन में रत तथा अपनी इस्त्री में अनुरूप जितेंद्र और अतिथि सेवा में नीरज श्रेष्ठ पुरुषों को तो घर में भी मोक्ष प्राप्त हो जाता है



निष्क्रांत नगर एवं ग्राम में भगवान सूत्रीय राजा नदी तथा वैद्य 5:00 नहीं है नहीं रहते वहां बुद्धिमान व्यक्ति का रहना उचित नहीं है मनुष्यों में ब्राम्हण तेज तेज में आदित्य शरीर में सिर और व्रतों में सत्य ही श्रेष्ठ

प्रिय वचन बोलना चाहिए कभी भी अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए प्रिय मिथ्या वचन भी नहीं बोलना चाहिए यही सनातन धर्म है

सत्संग और विवेक यह दो प्राणी के मल रहित स्वस्थ दो नेत्र हैं जिसके पास यह दोनों नेत्र नहीं है वह मनुष्य अंधा है वह कुमार्गगामी कुमार पर कैसे नहीं जाएगा अर्थात वह अवश्य ही कुमार्ग पर चला जाएगा

संसारिक विषय वासनाओं के भोग में जिस प्रकार अनुरूप तो हो तो इस संसार के बंधन से क्यों नहीं विमुक्त हो सकता

राष्ट्र का आश्रय राजा बालक का श्रेय पिता और समस्त प्राणियों का आश्रय धर्म है किंतु सभी के आश्रय श्रीहरि भगवान श्रीकृष्ण हैं

सतयुग में भगवान हरि का ध्यान करते हुए त्रेता में इन्हीं भगवान का हरि मंत्र जप करते हुए द्वापर में भगवान हरि का पूजन करते हुए जो फल प्राणियों को प्राप्त होता है वही फल कलयुग में मनुष्य उन्हीं भगवान के शव के स्मरण मात्र से प्राप्त कर लेता है

जिस व्यक्ति की दिव्य के अग्रभाग हारी यह अक्षर विद्वान होते हैं वह इस संसार सागर को पार कर जाता है विष्णु पद को प्राप्त करने में असफल सफल हो जाता है


अपने स्थान या पद पर अवस्थित रहने पर ही मनुष्य की पूजा होती है स्थान और पद से चित्र होने पर उसकी उसी प्रकार पूजा नहीं होती जिस प्रकार शरीर से पृथक होने पर के सिद्धांत और नाक सोभित नहीं होते

जो मलिनी वस्त्र धारण करता है दांतों को स्वच्छ नहीं रखता है अधिक भोजन करने वाला है कठोर वचन बोलता है सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय भी सोता है वह यदि साक्षात चक्रपाणि विष्णु हो तो उन्हें भी लक्ष्मी छोड़ देती है

गांव की धुली धान की धुली और पुत्र के अंग में लगी धूलि महान कल्याणकारी एवं महापात्र को का विनाश विनाशक है


स्त्री राजा अग्नि सर्प स्वाध्याय शत्रु की सेवा भोग और आशीर्वाद में कौन ऐसा बुद्धिमान होगा जो विश्वास करेगा


छह कानों तक पहुंची हुई गुप्त मंत्रणा नष्ट हो जाती है अतः मंत्रणा को चार कानों तक ही सीमित रखना चाहिए दो कानों तक स्थित मंत्रणा को तो ब्रह्मा भी जानने में असमर्थ नहीं है समर्थ नहीं है


मनुष्य के लिए गुरु वान एक ही पुत्र अच्छा है गुणहीन सौ पुत्रों से क्या लाभ चंद्रमा अकेले ही अंधकार को नष्ट कर देता है किंतु हजारों ज्योतिष ज्योतिपुंज उस अंधकार को दूर करने में असफल रहते हैं


दूसरे का अन्य दूसरे का धन दूसरे की सैया दूसरे की स्त्री का सेवन और दूसरे के घर में निवास करना यह सब कृत इंद्र के भीम ऐश्वर्य को समाप्त कर देते हैं

नीच प्रकृति वाले पुरुष धन चाहते हैं मध्यम प्रकृति वाले धन और मान की अभिरुचि रखते हैं तथा उत्तम प्रकृति वाले मात्र सम्मान की इच्छा रखते हैं क्योंकि श्रेष्ठ जनों का मान ही धन है

अनुकूल पुत्र अर्थ कारी विद्या आरोग्य शरीर सत्संगी सत्संगति तथा मनोनुकूल वस वर्तनी पत्नी यह पांच पुरुषों के दुखों को समूल नष्ट करने में समर्थ हैं

आयु कर्म धन विद्या और मृत्यु यह पांच जन्म से ही सुनिश्चित होते हैं


आकाश में गिरे हुए बादलों की छाया तिनके से आग नीच की सेवा मार्ग में दृष्टिगोचर हुआ जल वेश्या का प्रेम और दुष्ट के अंतकरण में उत्पन्न हुई प्रीति 16 जल में उठने और तत्काल विलुप्त होने वाले बुलबुले के सदस्य ही क्षणभंगुर होते हैं

निर्बल का बल राजा बालक का बल रोना मूर्ख का बल मौन धारण कर लेना है और चोर का बल्ला सत्य


लोग प्रमाद और विश्वास इन तीन के कारण व्यक्ति का विनाश होता है


अग्नि तथा व्याधि रोग शेष रहने पर भी बार-बार बढ़ते जाते हैं अत आशीष उनका रखना उचित नहीं


मनुष्य को भविष्य उसी समय भयभीत रहना चाहिए जिस समय तक आगमन नहीं हो जाता तीव्र भय के उपस्थित हो जाने पर तो उसे निर्भीक होकर उसका सामना करना चाहिए


परोक्ष रूप में कार्य को नष्ट करने वाले तथा सामने मधुर बोलने वाले मित्र काम आया मायावी शत्रु की भांति परित्याग कर देना चाहिए



दुष्ट का साथ करने से सज्जन पुरुष भी विनष्ट हो जाता है क्योंकि सुंदर स्वच्छ पेयजल कीचड़ मिल जाने से दूषित हो जाता है

वैश्य महासभा नहीं जिसमें वृद्ध नहीं जन नहीं होते वृद्ध वृद्ध नहीं माने जाते जो धर्म का उपदेश नहीं देते वह धर्म धर्म नहीं है जिसमें सत्य का वास नहीं होता वह सत्य सत्य नहीं है जो कपट से अनुप्राणित रहता है


प्राणी जिसके हृदय में अवस्थित है वह दूर देश में रहते हुए भी उसके सन्निकट ही विद्यमान रहता है जो प्राणी हृदय से ही निकल चुका है वह समीप में ही रहते हुए भी दूर देश में निवास करने वाले के समान है

गंगाद्वार कुशावर्त विघ्न पर्वत नीलगिरी और कनखल इन महातीर्थ में जो व्यक्ति स्नान करता है वह पुनः संसार में जन्म नहीं लेता

जो पुरुष कपट धर्म में गृहस्थ आश्रम आश्रम में ही रहता हुआ पुत्र स्त्री और धन को ही परम पुरुषार्थ मानता है वह अज्ञानवश संसार में ही भटकता रहने के कारण उस परम कल्याण को प्राप्त नहीं कर पाता नहीं कर सकता



बुद्धिमान पुरुषों को दुष्टा स्त्रियों का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए जो मूर्ख इनका विश्वास करता है उसे दुखी होना पड़ता है



क्षमा दम दया दान नीलू बता स्वाध्याय सरलता अनुसूया तीर्थ का अनुसरण सत्य संतोष आस्तिक क्या इंद्रियनिग्रह देवार्चन विशेषकर ब्राह्मणों का पूजन अहिंसा प्रिय वादिता रुचिता और UP 10 उंगली ना करना इन सभी को चारों आश्रमों का सम्मान समान धर्म स्वीकार किया गया है

प्याज सात्विक राजस और तामस भेद से 3 प्रकार का कहा गया है


Arjun Jo Shastra with Karam Karna Karthavyam Usi Bhavishya Shakti aur Pal Ka Pyar Karke Kiya jata hai wahi Satwik Tyag Mana jata hai



जो कुछ कर्म है वह सब दुख रूपी है ऐसा समझकर यदि कोई शरीरिक प्लेस के भय से कर्तव्य कर्मों का त्याग कर दें तो वह ऐसा राजस्व याद करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता


मुंह के कारण उसका त्याग कर देना तामस क्या कहा गया है मुंह

यज्ञ दान स र तप रूप कर्म त्याग करने योग्य नहीं है बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है जो कि यज्ञ दान और तब यह तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं



जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो दो ऐसे नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता वह शुद्ध सत्व गुण से युक्त पुरुष संशय रहित बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है


100 मालिक एक हजार और एक हजार का मालिक लाख का


100 मालिक एक हजार और 1000 वाला व्यक्ति लाख की पूर्ति में लगा रहता है जो लाक्षादि पति है वह राज्य की इच्छा करता है और जो राजा है वह संपूर्ण पृथ्वी को अपने वश रखना चाहता है और जो चक्रवर्ती नरेश है राजा है वह देवत्व की इच्छा करता है और देवत्व पद के प्राप्त होने पर उसकी अभिलाषा देवराज इंद्र के पद के लिए होती है और देवराज होने पर वह पूर्ण भगत की कामना करता है फिर भी उसकी तृष्णा शांत नहीं होती तृष्णा से पराजित व्यक्ति नरक में जाता है जो लोग तृष्णा से मुक्त हैं उन्हें उत्तम लोक की प्राप्ति होती है जय श्री कृष्णा जय श्री श्याम प्यारे दोस्तों नमस्कार फिर मिलेंगे लाइक करो ना करो इसके लिए चिंता मुझे नहीं हमें चिंता नहीं मुझे चिंता नहीं हमें चिंता नहीं उन्हें चिंता हमारी है हमारी नाव के खेवन सुदर्शन चक्र धारी हैं



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विप्रा नाम भूषण विद्या पृथिव्यां

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् देवीं सरस्वती
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सत्य के पालन से धर्म की रक्षा होती है सदा अभ्यास करने से विद्या की रक्षा होती है मार्जन के द्वारा पात्र की रक्षा होती हैं और फिर से कुल की रक्षा होती है


विप्रा नाम भूषण विद्या पृथिव्यां

ब्राह्मणों का आभूषण विद्या पृथ्वी का आभूषण राजा आकाश का आभूषण चंद्रमा एवं समस्त चराचर का आभूषण सील है

Jis avastha me Jise Main Jis Din Jis ratri Jis Mohabbat Mein Awaz discharge Jaisa Hoon Main Street hi Awasthi yoga unnathan nahi hoga

जो मनुष्य पराई स्त्रियों में मातृभाव रखता है जो दूसरे के द्रवों को मिट्टी पत्थर दिल के समान आदरणीय समझता है और सभी प्राणियों में अपने ही स्वरुप का दर्शन आत्म दर्शन करता है वही विद्वान है


जो राजा शास्त्र सम्मत और युक्ति सिद्धांतों का उल्लंघन करता है वह निश्चित ही इस लोक एवं परलोक दोनों में नष्ट हो जाता है


धैर्यवान मनुष्य कष्ट प्राप्त करके भी दुखी नहीं होते क्योंकि राहु के मुख में प्रविष्ट होकर चंद्रमा क्या पुणे उदित नहीं होता अर्थात अवश्य होता है


विद्या से सुशोभित होने पर भी दुर्जन व्यक्ति का परित्याग कर देना चाहिए जैसे मणि से अलंकृत सर्प क्या भयंकर नहीं होता अवश्य होता है

पूर्व जन्म में अर्जित की गई विद्या दिया गया धन तथा संपादित कर्म ही दूसरे जन्म में आगे-आगे मिलते जाते हैं अर्थात प्राणी ने पूर्व जन्म में जैसा कर्म किया है उसको इस जन्म में वैसा ही प्राप्त होता है



इस संसार में कर्म ही प्रधान है कर्म प्रधान विश्व रचि राखा इस संसार में कर्म ही प्रधान है सुंदर नक्षत्र तथा ग्रहों का योग था स्वयं वशिष्ठ मुनि के द्वारा निर्धारित लग्न में विवाह संस्कार कराए जाने पर भी जानकी सीता को पूर्व जन्म में संचित कर्म के अनुसार दुख भोगना पड़ा


ना पिता के कर्म से पुत्र को सद्गति मिल सकती है और ना पुत्र के कर्म से पिता सद्गति को प्राप्त हो सकता है सभी लोग अपने अपने कर्म ही अच्छी गति प्राप्त करते हैं


अधर्म से प्राप्त धन तो मनुष्य के
अधर्म से प्राप्त धन तो मनुष्य के ऐश्वर्या का नाशक होता है

इसलिए संसार में धर्म आरती ही महान होता है धन की अपेक्षा करने वाले मनुष्य को निश्चित ही श्रेष्ठ जनों के दृष्टांतों को स्मरण करके धनोपार्जन करना चाहिए

unnadi Trippin vyakti jindu Coco bhagta hai yaar idhar Maruti hokar Bandhu Khoka Chintan Kare to Pune usko Dukh Ka Pata na Hona Fardeen


सत्य पालन में शुचिता मना शुद्धि इंद्रियनिग्रह सभी प्राणियों में दया और जल से प्रक्षालन यह पांच प्रकार की सोच माने जाते हैं Soch


जिसमें सत्य पालन की सोचता है उसके लिए स्वर्ग की प्राप्ति दुर्लभ नहीं जो मनुष्य ही संभाषण करता है वह अश्वमेघ यज्ञ करने वाले व्यक्ति से बढ़कर हैं

उसके हाथ-पैर एवं मनुष्य मत है जिसे अध्यात्म विद्या प्राप्त है जो धर्म पालन के लिए कष्ट सहन करता है तथा जिन इसे सत्य कीर्ति अर्जित की है वही तीर्थों का यथार्थ फल भोगता है अन्यथा नहीं

जो मनुष्य सम्मान से प्रसन्न नहीं होता आप मानसिक रोग नहीं होता एवं क्रोध आने पर मुंह से कठोर वाक्य नहीं निकालता ऐसे ही पुरुष को साधु पुरुष समझना चाहिए ज्ञानी पुरुष मानना चाहिए पंडित जी कहना चाहिए इंटेलीजेंट भी से मारना चाहिए

सभी प्राणियों या पदार्थों की उत्पत्ति की पूर्व में स्थिति नहीं थी और निधन के अंत में भी उनकी स्थिति नहीं रहेगी सभी पदार्थ माध्यम मध्यम में ही विद्वान रहते हैं इसमें दुख करने की क्या बात है दुकानें की कोई बात नहीं है

रानी की मृत्यु वहां होती है जहां उसका हंता विद्यमान होता है लक्ष्मी वही निवास करती है जहां संपत्तियां होती हैं ऐसे ही अपने कर्म से प्रेरित होकर प्राणी स्वयं ही उन स्थानों पर पहुंच जाता है


पूर्व जन्म में किया गया कर्म करता के पीछे पीछे वैसे ही चल रहता है वैसे ही चलता है जैसे गोष्ट में हजारों गायों के रहने पर भी बछड़ा अपनी माता को पहचान लेता है

राग द्वेष आदि गुणों से युक्त प्राणियों को कहीं पर भी क्रोध नहीं मिलता मैं भली प्रकार से विचार करके यह देखता हूं कि जहां संतोष है वहां सुख है

यतीश न्यू भजन तक रोशनी हो दुखद से भाग नंबर इसमें हम मुलानी तूफानी तस्मिन्


जहां इतने हम प्रेम है वही भय है अंततः इसने ही दुख का कारण है प्राणियों में इसने उत्पन्न करने के जो मूल है वही दुख के कारण हैं अतः उन का परित्याग  कर देने पर

अर्थात उनके प्रति अपनी आसक्ति को समाप्त कर देने से प्राणी को महान सुख की प्राप्ति होती है

शरीर के साथ ही वह सुख दुख भी उत्पन्न होते हैं यह शरीर ही दुख और सुख का घर है अर्थात पराधीनता ही दुख और स्वाधीनता ही सुख है

प्राणी को सुख भोग के पश्चात दुख और दुख के पश्चात सुख का भोग प्राप्त होता है इस तरह मनुष्य के सुख-दुख चक्र के समान परिवर्तित होते रहते हैं



माता भगिनी अथवा पुत्री के साथ एकांत में एक साथ नहीं बैठना चाहिए क्योंकि इंद्रियों का समूह बलवान होता है या विद्वानों को भी दुराचरण की ओर खींच लेता है

मित्र का भी अधिक विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि कदाचित कुछ क्रुद्ध होने पर मित्र भी समस्त गोपनीयता को प्रकट कर सकता है

अधिक मात्रा में जल का पान करना गरिष्ठ भोजन धातु की चिंता मल मूत्र का वेग रोकना दिन में सोना एवं रात्रि में जागरण करना इन 6 कारणों से मनुष्य के शरीर में रोग निवास करने लगते हैं


लोभ रहित मनुष्य के साथ मैत्री संबंध स्थापित करने वाला पुरुष दुखी नहीं होता

सतयुग में जिस देश में पाप होता है त्रेता में जिस गांव में जिस ग्राम में पाप होता है उस गांव का द्वापर में जिस स्कूल में पुल में पाप होता है उस स्कूल का और कलयुग में केवल पाप करने वाले का परित्याग कर देना चाहिए

कुल की रक्षा के लिए एक व्यक्ति का ग्राम की रक्षा के लिए कुल का जनपद डिस्ट्रिक्ट के हित के लिए ग्राम का और अपने वास्तविक कल्याण के लिए पृथ्वी का भी परित्याग कर देना चाहिए

मनुष्य को दुर्जनों की संगति का परित्याग कर देना करके साधु जनों की संगति करनी चाहिए और दिन-रात मनुष्य पुण्य को संचय करते हुए नित्य अपनी अनित्य का स्मरण करना चाहिए

हितकारी अन्य व्यक्ति भी अपने बंधु हैं और यदि बंधु अहितकर  है तो वह भी अपने लिए अन्य है शरीर से ही उत्पन्न व्याधि अहितकर होती है किंतु वन में उत्पन्न औषधि निराकरण करके मनुष्य का हित साधन करती है

जो मनुष्य सदैव हित में तत्पर रहता है वही बंधु है जो भरण पोषण करता है वही पिता है जिस व्यक्ति में विश्वास रखता है वही मित्र है और जहां पर मनुष्य का जीवन निर्वाह होता है वहीं उसका देश है

नरक में निवास करना अच्छा है किंतु दुश्चरित्र व्यक्ति के घर में निवास करना उचित नहीं नरक वास के कारण पाप भी नष्ट हो जाता है किंतु दुष्ट सहित व्यक्ति के घर में निवास करने पर पाप की निवृत्ति नहीं होती और बढ़ते रहते हैं


परंतु जब वही व्यक्ति पदक जीत और अर्थहीन हो जाता है तो उसके असमय में स्वजन भी शत्रु हो जाते हैं

आपातकाल में मित्र युद्ध में एकांत स्थान में शुचिता विभव के क्षण हो जाने पर पत्नी तथा दुर्भिक्ष के समय अतिथि प्रियता की पहचान होती है

पथरीगढ़ फल रहित वृक्षों का परित्याग कर देते हैं सारस पक्षी सूखे हुए सरोवर को छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं वेश्याएं धन से रहित होने पर पुरुष को छोड़ देती हैं मंत्री भ्रष्ट राजा का त्याग कर देते हैं
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विश्वकर्मा जी के 108 नाम

 भगवान विश्वकर्मा जी के 108 नाम उनके विभिन्न गुणों, क्षमताओं और दिव्यता को दर्शाते हैं। यहाँ विश्वकर्मा जी के 108 पवित्र नामों की सूची दी गई...